प्राचीन भारतीय इतिहास: भारत में वर्ण व्यवस्था और इसका उद्भव
General Knowledge in Hindi
प्राचीन भारतीय इतिहास: भारत में वर्ण व्यवस्था और इसका उद्भव
भारत में वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज को चार भागों में बाँटा गया है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र |
प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म-आधारित थी जो उत्तर वैदिक काल के बाद जन्म-आधारित हो गयी |
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ब्राह्मण – पुजारी, विद्वान, शिक्षक, कवि, लेखक आदि
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क्षत्रिय – योध्दा, प्रशासक, राजा
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वैश्य – कृषक, व्यापारी
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शूद्र – सेवक, मजदूर आदि
उद्भव
सर्वप्रथम सिन्धु घाटी सभ्यता में समाज व्यवसाय के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया था जैसे पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पकार, जुलाहा और श्रमिक | प्राचीन भारतीय इतिहास
वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भिक रूप ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में मिलता है | इसमें 4 वर्ण ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का उल्लेख किया गया है। इतिहासकर राम कृष्ण शर्मा के अनुसार, वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति, कर्म आधारित था |
वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्र में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है |
उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित हो गयी |
मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है |
ब्राह्मण
वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों का कार्य यज्ञ करना , यज्ञ कराना, शिक्षक के रूप में कार्य करना, था |
इसके अलावा राजाओं को राज्य में परामर्श देने जैसे कार्य ब्राह्मण करते थे |
क्षत्रिय
क्षत्रिय वर्ण व्यवस्था में सेना में, प्रशासन में और शासक के रूप में कार्य करते थे |
ब्राह्मणों की जो स्थिति धर्म संबंधी कार्यों में थी वही क्षत्रियों की राज्य संबंधी कार्यों में थी | गौतम बुध्द और महावीर स्वामी जैन धर्म से थे |
मनुस्मृति का वचन है
”विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठतम क्षत्रियाणं तु वीर्यतः” अर्थात् ”ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से।”
वैश्य
वैश्यों का मुख्य कार्य व्यापार करना, किसानों के रूप में कार्य करना था |
इस शब्द की उत्पत्ति विश से हुई है जिसका अर्थ होता है बसना |
शूद्र
शूद्रों का कार्य उपरोक्त तीनों वर्ण की सेवा करना था |
समाज में वैदिक काल में छुआछूत का प्रचलन नहीं था |
छुआछूत की प्रथा ने गुप्त काल में जड़ें जमाना शुरू कीं |
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